Tuesday, August 15, 2017

बाढ़ और पानी-पानी किसानी

दिन भर बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में घूमता रहा, लोगों को देखता रहा।  सबकुछ आँखों के सामने देखकर जब घर लौटा हूं तो अपना कष्ट सबसे कम लग रहा है। कुर्सी-टेबल, बक्सा, थाली-ग्लास, चौंकी-बिछावन ये सब लेकर बीच सड़क के डिवाइडर पर लोगों को देखकर मन के सारे तार टूट गए। सैकड़ों एकड़ में लगी धान की फ़सल जाने कहाँ ग़ायब हो गई। ज़ीरो माईल से अररिया शहर डूबता दिखा तो वहीं जोकीहाट जाने वाली सड़क को बाढ़ ने अपने आग़ोश में ले लिया। 

अररिया ज़िला के पलासी थाना का भीमा गाम जाना था, जहाँ मेरे दोस्त निशांत के माँ-बाबूजी फँसे हैं, लेकिन बाढ़ ने रास्ता रोक लिया। एक बेटा अपने माँ-बाप से मिल न सका। अररिया के ज़िलाधिकारी से बात की तो उन्होंने भरोसा दिया लेकिन वे भी टूटे नज़र आए। उनका कहना था कि सेना की सहायता ली जा रही है। ख़ाली हाथ उस बेटे के संग पूर्णिया लौटा जो आशा और विश्वास के साथ अपने पुश्तैनी घर जाना चाह रहा था, मुसीबत में फँसे माँ-पिता के पास ! 

उधर, किशनगंज की राह आसान नहीं है। हाईवे को क्षति पहुँची है। पूर्णिया के समीप कसबा इलाक़े में बाढ़ ने तांडव मचाया है। यह सब देखकर भारी मन घर लौटा और फिर चनका की तरफ निकल गया। 

सुबह ही पता चला था कि प्यारी सौरा नदी और कारी कोसी ने रौद्र रूप धारण कर लिया। भीतर  से डर गया। दोपहर बाद चनका के लिए निकला तो पूर्णिया शहर की सीमा ख़त्म होते ही रिकाबगंज-बालूघाट इलाक़े में पानी के तेज़ बहाव से पाला पड़ गया। वहाँ कारी कोसी और सौरा तबाही मचा रही है। श्रीनगर में चिन्मय का खेत पानी में डूबा दिखा। धान की फ़सल डूब चुकी है। नुक़सान बहुत हुआ है और शायद अभी कहानी बांकी है क्योंकि जल का बहाव तेज़ है। 

खेती-किसानी को पानी-पानी होते देखना सबसे दुखदायी होता है, न कोई कविता, न कोई कहानी काम आती है...सब रेणु की परती-परिकथा में डूबती नज़र आने लगती है। 

कारी कोसी की धार वाली छोटी नदियों ने चनका में नुक़सान पहुँचाया है। खेत में धान लुढ़के दिखे तो आँख के कोर भींग गए लेकिन तभी अररिया जाते वक़्त सड़क किनारे मिले मुश्ताक़ भाई का घर याद आने लगा जो डूब चुका था और वे सड़क पर चावल और दाल सूखाते मिले थे। किसानी में तबाही  का एक अनिवार्य अध्याय होता है। बाबूजी की एक बात मुझे हमेशा याद आती है,  वे कहते थे- 
" डरो मत, लड़ो। किसानी करते हुए लड़ना पड़ता है। " इसके बाद वे कुछ मुहावरा सुनाते थे और फिर कहते थे - "जाओ घुमो और तबाही के मंजर को महसूस करो ताकि तुम्हें अपना दुख कम दिखने लगे क्योंकि तुमसे भी ज्यादा क्षति और लोगों की हुई है।“

आज की रात वे चेहरे याद आएँगे, जिन्हें पानी और सड़क के बीच आते-जाते देखा। उन बच्चों की याद आ रही है, जिन्हें नहीं पता कि घर डूबना क्या होता है लेकिन जिन्हें पता है कि भूख क्या होती है। भूख से रोते बिलखते बच्चों की याद आ रही है। परती परिकथा में रेणु की लिखी इस पंक्ति का आज फिर से पाठ करने का मन है -

" कोसी मैया बेतहासा भागी जा रही है, भागी जा रही है। रास्ते में नदियों को, धाराओं को छोटे बड़े नालों को, बालू से भरकर पार होती, फिर उलटकर बबूल, झरबेड़, ख़ैर, साँहुड़, पनियाला, तीनकटिया आदि कँटीले कुकाठों से घाट-बाट बंद करती छिनमताही भागी जा रही है...
थर-थर काँपे धरती मैया, 
रोये जी आकास,
घड़ी-घड़ी पर मूर्छा लागे, 
बेर बेर पियास
घाट न सूझे, बाट न सूझे, 
सूझे न अप्पन हाथ  
.....


#BiharFlood

1 comment:

प्रशांत said...

बहुत ही दुखद है पर यही सत्य है उसी तरह जैसे 'राम' नाम सत्य है।न केवल बिहार बल्कि बंगाल, उत्तर प्रदेश एवं नेपाल के विभिन्न इलाके नदियों के रौद्र रूप को सहन करने को मजबूर है, कहीं-कहीं लोग हिम्मत हार रहे है तो कहीं से ये खबर आना की गांव से पानी निकलने लगा है बहुत ही ख़ुशी दे जाती है, पर इन सबके बावजूद नुकसान हो चूका जिसकी भरपाई कभी नहीं की जा सकती है।कुछ परिवार तो शायद ही इसे भूल पाएं अब।प्रकृति भी कितनी निराली है न, एक पल को जीवन में हज़ार खुशियां दाल देती है दूसरे ही पल ये बताना नहीं भूलती की ये सब माया है।सत्य तो केवल एक है और उसी में सब समाया है।